रात के नौ बजे थे। भोजन करके कुछ पढ़ रहा था कि फाटक-पर शोरगुल-सा सुनाई दिया। थोड़ी देर तो ध्यान नहीं दिया परंतु जब आवाज रोने-चिल्लाने में बदल गयी तो नीचे जाना पड़ा।
देखा, बीस-तीस व्यक्ति एक बारह-तेरह वर्ष के दुबले-से लड़के को घेरे हुए हैं, उसकी नाक और मुँह से खून निकल रहा है। लोग बीच-बीच में उसके दो-एक चपत भी जमा रहे हैं। पूछने पर पता चला कि पास के सिनेमा घर के बाहर लाई-चने के खोमचे से दुकानदार की आँख बचा कर लाई लेकर भागता हुआ यह लड़का पकड़ा गया, फिर तो मोहल्ले के बदमाश लड़कों को अपनी जोर-आजमाइश करने का मौका मिल गया और मारते-मारते इसकी यह हालत कर दी।
उस मासूम बच्चे के चेहरे पर करुणा की मार्मिक याचना देखी तो खोमचे वाले को दो रुपये देकर विदा किया और अन्य सब लोगों को समझा-बुझा कर वहाँ से हटा दिया।
दरबान से लड़के को भीतर लाने के लिये कहा। लड़का उस समय भी भय से काँप रहा था और अन्दर आने में झिझक रहा था। शायद डरता था कि और मार न लगे या कोई नयी विपत्ति न आ पड़े। एक प्रकार से धकेलते हुए ही उसे लाया गया। मैंने प्यार से सिर पर हाथ रखकर पूछा कि उसने ऐसा बुरा काम क्यों किया ? तो सुबुक-सुबुक कर रोने लगा। थोड़ी देर तो कुछ बोल ही नहीं पाया। ऐसा लगता था कि मार और भूख से बहुत ही व्याकुल हो गया है। उसे बेहोशी-सी आ रही थी। खाने के साथ एक गिलास गर्म दूध दिया, तब कहीं थोड़ा सँभल पाया।
मैंने उसे दूसरे दिन सुबह तक वहीं रहने को कहा तो रोकर कहने लगा, 'मेरी बीमार माँ घर पर अकेली है और कल से भूखी है, वह मेरी राह देख रही होगी। मुझे इतनी रात तक नहीं पाकर बहुत चिंतित होगी, इसलिये अभी घर जाने दीजिये।' कुछ खाने-पीने का सामान देकर दूसरे दिन उसे फिर आने को कहकर भेज दिया।
दो-तीन दिन बीत गये। लड़के की भोली सूरत भूल नहीं सका। दरबान को उसे बुलाने भेजा। देखा कि बालक के सिर एवं हाथ पर पट्टी बँधी है और उसके साथ एक युवा, किंतु कृशकाय और बीमार-सी स्त्री भी है। साड़ी में जगह-जगह पैबन्द लगे हुए थे, चेहरे पर दैन्य और बीमारी की स्पष्ट छाया थी। फिर भी उसके नाक-नक्श की सुघड़ाई से लगता था कि शायद किसी समय बहुत ही रूपवती रही होगी।
कहने लगी कि उस दिन मार से बच्चे को बुखार आ गया था, कहीं-कहीं सूजन भी। स्त्री के बोलने के लहजे से समझ पाया कि पूर्वी बंगाल की है। जो आत्मकथा उसने सुनाई, वह इतने दिनों बाद भी भूल नहीं सका हूँ। कभी-कभी जब दुबले-पतले बच्चों को भीख माँगते देखता हूँ तो उस मासूम बच्चे की तस्वीर आँखों के सामने आ जाती है। खुलना के पास के किसी देहात में उनकी अच्छी-खासी खेती की जमीन थी। एक छोटा पोखर भी था। सब प्रकार से सुखी गृहस्थी थी। देश के विभाजन के बाद भी वे लोग वहीं रह गये। यद्यपि नाना प्रकार के कष्ट और अपमान झेलने पड़ते थे, परंतु एक तो कहीं अन्यत्र आसरा नहीं था, दूसरे पूर्वजों के घर और जमीन आदि के प्रति मोह-ममता भी थी, जो उन्हें गाँव छोड़ कर चले जाने से रोके हुए थी।
सन् 1958 ई० में एक दिन अचानक ही गाँव के हिन्दुओं पर हमला बोल दिया गया। जो मुसलमान हो गये, उनके जान-माल बच गये, जिन्होंने विरोध किया, वे कत्ल कर दिये गये।
उसका पति वैष्णव, कण्ठी धारी कायस्थ था। किसी समय गाँव का मुखिया भी था और दोनों समय घर के ठाकुर जी की पूजा-अर्चना करता था। वह किसी प्रकार भी धर्मत्याग करने को तैयार नहीं हुआ। उसे खुदा के बन्दों ने काटकर पास के पोखर में डाल दिया। पड़ोसियों के बीच बचाव से किसी प्रकार बेचारी विधवा अपने आठ वर्ष के बच्चे को साथ लेकर सीमा पार करके भारत के 'बनगाँव' में आकर रहने लगी। जो कुछ थोड़ा-बहुत सामान साथ में था, वह सब रास्ते में लोगों ने लूट लिया।
उसने देखा कि वहाँ पर पहले से ही पाकिस्तान से आये हुए शरणार्थी बड़ी संख्या में हैं और सरकारी कैम्पों में किसी प्रकार पेट पाल रहे हैं और 'परमात्मा की दया' से इनमें से बहुत से अनेक प्रकार की बीमारियों से जल्दी-जल्दी मरकर रोज-रोज की यातनाओं से शीघ्र मुक्ति भी पा रहे हैं।
26-27 वर्ष की आयु, सुगठित अंग प्रत्यंग, चेहरे पर लावण्य की स्पष्ट आभा। विपत्ति में सुन्दरता भी अभिशाप बन जाती है। कैम्प के लिये नाम दर्ज कराने वाला इन्सपेक्टर रात में उसकी 'सरकी' में आकर लेट गया। शरणार्थियों के पुनर्वास और उनकी देखभाल के लिये रखे गये लोग इतने बेशर्म और निधड़क हो गये थे कि न तो उन्हें किसी की निन्दा का डर था और न मान-मनुहार की आवश्यकता। किसी भी शरणार्थी लड़की या स्त्री के साथ मनचाहा व्यवहार करना वे अपना अबाध अधिकार मानते थे। शरणार्थी स्त्रियाँ बेचारी विपत्ति की मारी, भूखे पेट और थके तन को लेकर आखिर विरोध कहाँ तक कर पातीं ? कैम्प में स्थान और सरकारी सहयता न मिलने पर सन्तान सहित तिल-तिलकर मरना पड़ता, इसलिये जीवित रहने के लिये ऐसे अपमान को भी आवश्यक मान लिया गया था।
लेकिन सुरमा उस धातु की नहीं बनी थी। वह अपना शरीर नहीं दे सकी और जोर-जोर से चिल्लाने लगी। खैर, उस समय तो वह इन्सपेक्टर चुपचाप खिसक गया, परंतु दूसरे दिन तो फिर दरख्वास्त लेकर उसी के पास जाना होता। सुरमा को यह स्वीकार न था। अतः रजिस्ट्री-ऑफिस में न जाकर उसने अपने बच्चे को साथ लिया और रास्ते के अनेक कष्ट झेलते हुए कलकत्ता आ गयी। यहाँ उसको एक घर में दाई का काम मिल गया, रहने को एक छोटी-सी कोठरी भी।
रूपवती विधवा युवती मुहल्ले के युवकों के लिये अपने-आप में एक आकर्षण हो गयी। वे बिना काम ही उसके घर के आस पास मँडराते। कभी सीटी बजाते और कभी गन्दी आवाजें कसते। लिहाजा उसे वह आसरा भी छोड़ देना पड़ा। सोचा तो यह था कि भारत-भूमि में सहधर्मी बन्धुओं के बीच जीवन के बाकी दिन किसी प्रकार चैन से बिता पायगी, अपने बच्चे की जैसे-तैसे परवरिश करेगी, किंतु उसे क्या पता था कि पाकिस्तान की तरह यहाँ भी मनुष्य के रूप में भूखे भेड़ियों की कमी नहीं है।
कई बार मन में आया कि तेजाब छिड़क कर मुँह को बदरंग कर ले, परंतु कुछ तो पीड़ा के भय से और कुछ बच्चे का ख्याल करके वह यह सब नहीं कर पायी।
कई जगह भटकते हुए उसे ढाकुरिया लेक के पास एक शरणार्थी परिवार में रहने का सहारा मिल गया, परंतु केवल आवास की व्यवस्था से पेट की भूख नहीं मिटती। भीख माँगने में पहले-पहल तो झिझक हुई, फिर आदत पड़ गयी और किसी तरह दो जून खाना मिलने लगा।
लड़का देखने में सुन्दर और बातचीत में चतुर था। सुबह-शाम जो सैलानी लेक पर आते, उनकी मोटरों की सफाई और सँभाल करता रहता। वे दो-चार आने बख्शीश के तौर पर उसे दे देते, पर कभी धमकाकर ऐसे ही भगा देते।
एक दिन माँ को बुखार आ गया, सीलन भरी जमीन पर बिना चारपाई के सोने से और भूख जनित कमजोरी से यह साधारण और स्वाभाविक बात थी। डाक्टर को दिखाने का प्रश्न ही नहीं था। पड़ोस की एक वृद्धा ने उसे दो गोली कुनैन की लाकर दी और लाई खाने को कहा। बच्चा लाई लाने के लिये घर से निकला। दिन भर खड़े रहने पर भी उस दिन जब कुछ भी प्राप्ति नहीं हुई तो माँ की भूख का ख्याल करके सड़क पर के खोमचे से उसने कुछ लाई चुरा ली। परंतु भागते हुए पकड़ लिया गया।
यही कहानी थी, जो उसकी माँ की जुबानी मैंने उस दिन सुनी। लड़के की पढ़ाई नहीं के समान थी, इसलिये उसे अपने ऑफिस में चपरासी के रूप में रख लिया। यह कई वर्ष पहले की बात है। सुरेन अब बड़ा हो गया है, कुछ अंग्रेजी और हिन्दी भी पढ़ ली है। मेरे यहाँ जितने कर्मचारी हैं, उनमें वह सबसे मेहनती और ईमानदार है। गरीब बंगालियों में लड़कियों की कमी नहीं है। सम्भव है, थोड़े वर्षों में उसका विवाह हो जायगा, तब उसकी दुखिया माँ को भी बहुत वर्षों के बाद गृहस्थी का थोड़ा-सा सुख देखने को मिलेगा।
आज भी मैं कभी-कभी सोचता हूँ कि क्या उस दिन सचमुच सुरेन ने चोरी की थी ? बाद में तो कभी भी कोई शिकायत नहीं मिली ? मनुष्य स्वभाव से चोर होता है या परिस्थितियाँ उसे मजबूर करती हैं?